बक्सर खबर : हिन्दू धर्म जीवन जीने की पद्धति है। यह बात सभी विद्वान कहते हैं। इस पर आज के युवा वर्ग को विश्वास नहीं होता। आज जरुरत है कि कम इस विषय पर भी लोगों को जागरुक करें। इस कड़ी में भारतीय नव वर्ष के प्रथम उत्सव नवमी पूजन की चर्चा करते हैं। हमारे पर्व त्योहार किस तरह वैज्ञानिक पहलुओं से जोड़ते हैं। आइए देंखे।
नौमी पूजन
बक्सर : नवरात्रि में अष्टमी की रात घरों में महिलाएं नौमी पूजन करती हैं। मिट्टी के कलश को स्थापित कर उसकी पूजा होती है। उसमें जल भरा होता है। आम के पल्लव डाले जाते हैं। उसे गमछे से ढंक दिया जाता है। जिसे ग्रामीण भाषा में दौनी कहा जाता है। शाम के समय दलित वर्ग से आने वाले महिलाए मानर बजाती हैं। पूजन की विधि प्रारंभ हो जाती है। देवी गीत के साथ पूजा का यह दौर सुबह चार बजे तक चलता है। मिट्टी के कलश में कच्चे धागे से माता शितला का लाकेट बंधा होता है। सुबह एक बार फिर वही महिला अपना मानर बजाती है। पूजा समाप्त होने के बाद मटके अर्थात कलश के जल को महिलाएं प्रसाद के रुप में ग्रहण करती हैं। मां के आर्शीवाद स्वरुप घर के युवाओं अथवा बच्चों को वह दौनी अर्थात अंगोछा दिया जाता है।
वैज्ञानिक महत्व
बक्सर : चैत्र मास प्रारंभ होते के साथ ही गर्मी का मौसम दस्तक दे देता है। जिस मटके की कलश के रुप में पूजा होती है। उसका जल सुबह महिलाए ग्रहण करती हैं। वह जल काफी शीतल होता है। यह इस बात का परिचायक है कि गर्मी के मौसम में मटके का जल प्रयोग में लाया जाना चाहिए। जो ठंडा होता है। जो अंगोछा पूजा के प्रयोग में लाया जाता है। उसे परिवार के सदस्य अपने प्रयोग में लाते हैं। अर्थात गर्मी और धूप से बचने के लिए इस मौसम में अंगोछे का प्रयोग अनिवार्य है। कलश के साथ मां शीतला की पूजा होती है। जो यह संदेश देती हैं कि आने वाले दो माह काफी गर्म हैं। ऐसे में शितलता पर ध्यान दें। अन्यथा स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है। यह परंपरा बहुत ही पुरानी है। उस जमाने में न तो आज की तरह गर्मी से बचने के लिए संसाधन थे। न ही जल को ठंडा रखने का कोई दूसरा उपकरण। यह शिक्षा अनवरत आने वाली पीढ़ी को मिलती रहे। इस लिए इसे पूजा पद्धति से जोड़ दिया गया। जो आज भी जीवंत है। यह है हमारी संस्कृति व हिंदू धर्म। इस लिए हमें अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि परंपरा शहर से गांव तक एवं गरीब से लेकर संपन्न लोगों का संरक्षण करती है। यह किसी में भेदभाव नहीं करती।