साथियों के सम्मान के लिए लड़ते रहे कुंदन ओझा

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बक्सर खबर : पत्रकारिता का वह एक दौर था। जब पत्रकार पूरे दिन अपना चना-चबेना खा कर कलम चलाते थे। उनके लिए अपना और कलम का सम्मान सर्वोपरी था, क्योंकि उनका जमीर जिंदा था। कभी जार्ज फर्नांडिस जैसे केन्द्रीय मंत्री के सामने पत्रकार एकजुट हो खड़े हो जाते थे। साथियों के लिए आवाज उठाने में कुंदन ओझा आगे रहते। उनकी राजनीतिक पकड़ भी बेहतर थी। हम बात कर रहें हैं कुंदन ओझा की। नवभारत टाइम्स से अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत करने वाले कुंदन ने इतने उतार चढ़ाव देखे कि उनका जीवन ही समाज की भट्ठी में जलकर कुंदन बन गया। श्री ओझा उन लोगों में शामिल हैं। जिन्होंने दस वर्ष तक श्रमजीवी पत्रकार संघ का नेतृत्व किया। हमने उनसे कुछ बातें की। जो सीख मिली वह जानने लायक है। प्रस्तुत हैं उसके कुछ अंश ।

सम्मान के लिए कभी लिया लोहा, तो किसी का बहिष्कार
बक्सर : नब्बे का दशक था। केन्द्रीय मंत्री जार्ज फर्नांडिस बक्सर आए थे। उन्हें यूपी के चुनाव प्रचार में जाना था। शहर के कुछ पत्रकार वहां पहुंचे। स्थानीय सवाल करने शुरु किए। जिस पर जार्ज नाराज हो गए। पत्रकारों को वहां से चलता किया। इसकी भनक कुंदन ओझा और उनके साथियों को लगी। पहुंच गए जार्ज के पास। सामने होते ही पहला सवाल किया। अगर पत्रकार स्थानीय हो, कुछ सवाल जाने अनजाने स्थानीय कर दे तो क्या उनका सम्मान नहीं होगा। जार्ज जो स्वयं पत्रकार रह चुके थे। बात को समझा, उस घटना पर खेद प्रकट किया। तब पत्रकारों ने उनकी खबर लिखी। ऐसा ही एक प्रकरण बसपा नेता कांशी राम के साथ भी हुआ। वे एक निजी कार्यक्रम में बक्सर आए थे। बसपा के लोगों ने इसकी सूचना किसी को नहीं दी। पत्रकार दुविधा में। राष्ट्रीय नेता की खबर छूट जाए तो बैनर नाराज होगा। गए तो बिन बुलाए मेहमान की तरह हो जाएंगे। पत्रकारों ने मिलकर उनका बहिष्कार कर दिया।

कभी हटे दरोगा तो कभी एसपी
बक्सर : पत्रकार एकजुट हों तभी उनकी ताकत बढ़ती है। अगर आप कहीं जाते हैं तो दूसरे का विरोध न करें। इससे साख भी कमजोर होती है, सम्मान भी। ए एस सिद्दकी जिले के एसपी थे। उनपर तरह-तरह के आरोप लगे। थाना बेचने का आरोप लगा, पुरा पुलिस एसोसिएशन उठ खड़ा हुआ। पत्रकार भी भीड़ गए। खबरें चलने लगी। बात पटना तक पहुंच गई। मुख्यमंत्री लालू यादव थे। एसपी को यहां से हटा दिया गया। ऐसी ही एक घटना चुनाव के दौरान ब्रह्मपुर में हुई। वहां के एक स्थानीय नेता के इशारे पर दरोगा ने बहस कर ली। पत्रकार पहुंचे एसपी आर सी कैथल (तत्कालीन कप्तान) के कार्यालय। उसी शाम दरोगा लाइन हाजिर कर दिया गया। अगले दिन इसकी खबर भी छपी।

कहते हैं कुंदन ओझा
बक्सर : यह सारे संदर्भ कुंदन ओझा के संज्ञान में हैं। लेकिन, इन घटनाओं को कुरेदने पर ओझा जी टाल जाते हैं। पूछने पर कहा सबकुछ तभी संभव है। जब आप एक हो, नैतिकता को बनाएं रखे। गांव से बक्सर आना -जाना लगा रहता था। खबर कुरियर से कभी टेली ग्राम तो कभी फैक्स से भेजा करते थे। आज लिखो- फेको का दौर आ गया है। शीर्षक बाजार में घूम रहे हैं, खबर का पता नहीं। तथ्य से किसी का कोई वास्ता नहीं। नेता धरना प्रदर्शन कम करते हैं, बयान ज्यादा देते हैं। हमें याद है, जब बक्सर जिला बना तो आरा के डीएम कार्यभार देखते थे। कुछ माह बाद दीपक कुमार पहले डीएम बनकर आए। पशु अस्पताल के पास समाहरणालय का शिलान्यास हुआ। जगता बाबू मंत्री थे, और वहां का इलाका जैसे जंगल। अब तो शहर की आबादी इतनी हो गई कि, पत्रकारिता भी भीड़ में गुम होती नजर आ रही है। डीएम एसपी के हम लोग भी मिलते जुलते रहते थे। लेकिन, उनके खिलाफ लिखने में कोई गुरेज नहीं।

ओझा जी का जीवन परिचय
बक्सर खबर : कुंदन ओझा शहर के ख्याति प्राप्त अधिवक्ता बृज कुमार ओझा के पौत्र हैं। इनके पिता स्व. तारकेश्वर ओझा उतराखंड में प्रोफेसर थे और स्वतंत्रता सेनानी भी। इनका जन्म 16 दिसम्बर 72 को हुआ। निमेज हाई स्कूल से निकलने के बाद जैन कालेज आरा से एम तक की पढ़ाई पूरी की। 2002 में पीएचइडी की डिग्री भी ली। 1988में नवभारत टाइम्स के लिए लिखना प्रारंभ किया। लिखते गए – लिखते गए अब भी लिख रहे हैं। इस बीच उनका रिश्ता 1997 में हिन्दुस्तान अखबार से जुड़ा। 2006 में बक्सर के कार्यालय के प्रभार का दायित्व मिला। लेकिन, अपनी पारिवारिक मजबूरी ने उन्हें यहां टिकने नहीं दिया। संपादक से क्षमा मांगी, गांव लौट गए। क्योंकि अब बच्चे बड़े हो रहे थे। गांव की माटी , खेत – खलिहान बुला रहे थे। बड़े भाई ईश्वर कृष्ण ओझा भी झारखंड में जा बसे। वे सीनियर पत्रकार हैं। फिलहाल दैनिक जागरण के जमशेदपुर कार्यालय में। मजबूरियों के बीच कुंदन ओझा ब्रह्मपुर चले गए। पिछले 28 वर्ष से जिस कलम का साथ उन्होंने पकड़ा। उसे अब भी नहीं छोड़ा। पत्रकारिता से क्या पाया आपने? इसका जवाब उनके पास नहीं। पर जीवट इतने हैं कि कलम को दिल से लगाए बैठे हैं।

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