मेरा जख्मी जमीर अभी जिंदा है : कुमार नयन

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बक्सर खबर : मेरा जुता है जापानी, ए पतलून इंग्लिश्तानी, सर पे लाल टोपी रुसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी। यह गीत सुन आपको राज कपुर साहब की याद आती होगी। पर मैं जब यह गीत सुनता हूं, मुझे कुमार नयन की याद आती है। इनके नाम में लगा कुमार शब्द इस बात की तरफ इशारा करता है। यह वैसे जिंदा दिल शख्स का नाम है। जो कभी बूढ़ा नहीं हो सकता। क्योंकि वक्त गुजरने के साथ इनमें निखार आता जा रहा है। जो दूसरों को अपनी तरफ खींच लेता है। हम बात कर रहें है जिले के वैसे पत्रकार की जिनका जमीर अभी जिंदा है। कुमार नयन नाम है उनका। उनकी कलम हाथ में नहीं, दिलो-दिमाग में बसी है। वे सिर्फ पत्रकार ही नहीं हैं। गीतकार, गजलकार, फिल्म राइटर और सबको मिलाकर अब साहित्यकार बन गए। हर आदमी की तरह जरुरतें उनको परेशान करती रहीं। मजबूरन शहर से आते -जाते रहे। पर कभी अपने आप को बक्सर की माटी से अलग नहीं कर पाए। जीवट इतने हैं कि तब से लेकर आजतक शहर की सड़कों पर पैदल चलते आ रहें हैं। खुद के पास साइकल भी नहीं। नतीजा अब शहर की सड़के भी इनको पहचानने लगी हैं। हमने इनकी पुरानी यादों को कुरेदा। जो बातें सामने आई वह आप भी जान सकते हैं। उसके कुछ अंश:::

पत्रकारिता जीवन
1981 में कोलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रविवार के लिए लिखना प्रारंभ किया। इस बीच अंग्रेजी की पत्रिका ब्लिक्क में लिखना प्रारंभ किया। 1986 में नवभारत टाइम्स से जुड़े, इस क्रम में टाइम्स आफ इंडिया के लिए भी लिखते रहे। यह सफर 1991 में थम गया। लंबे समय अंतराल के बाद वर्ष 2004 में झारखंड के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र प्रभात खबर में सीनियर सब एडीटर के तौर पर काम करना प्रारंभ किया। यह सफर भी साल दो साल से अधिक नहीं चला। इसके बाद 08 से 09 के बीच युद्धरत आम आदमी विशेषांक में काम किया।
साहित्य और फिल्मी जीवन
बक्सर : कुमार नयन की एक रचना है। मैं कहना चाहता हूं कुछ तो, दिल कुछ और कहता है, कि मुझमें नहीं ईक शख्स कोई और रहता है। ए सच है मेरे अंदर शख्त कोई चीज है लेकिन, इसी पत्थर के नीचे से कोई मिरा दरिया भी बहता है। यह उनके जीवन पर भी सटीक बैठती है। 1991 में पत्रकारिता से साथ छूटा तो मुंबई चले गए। वहां दो भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे। एक के लिए डायलाग व पूरी कहानी लिखी। 93 में हमेशा के लिए माया नगरी को छोड़ दिया। शहर में सामाजिकी जीवन से जुड़े। 94-95 में अंजोर के सेक्रेटरी बने। 1999 में त्यागपत्र दे दिया। जरुरतें परेशान करती रहीं। वकालत शुरु कर दी। हाई कोर्ट के वरीय अधिवक्ता व्यासमुनी सिंह की नजर उनपर पड़ी। वे उन्हें पटना ले गए। 2002 में उनका निधन हो गया। तब नयन जी ने वकालत भी छोड़ दी।
उनकी रचनाएं  
बक्सर : हालात ऐसे बने की नयन कलम से जुदा नहीं हो सके। रास्ते कई बदले पर कलम खींच कर अपने पास ले आती रही। यह बात अब उनको भी समझ में आने लगी। जीवन के सफर में जो लिखा था। उसे सहेजने लगे। 1993 में पहला कविता संग्रह पांव कटे बिम्ब प्रकाशित हुआ था। उसने रफ्तार पकड़ी। अब तक कुल पांच पुस्तकें आई हैं। जिनमें आग बरसाते हैं शजर (गजल संग्रह), दयारे हयात  (गजल संग्रह), एहसास आदि प्रमुख हैं। उनकी अगली रचना सोंचती हैं औरतें, प्रकाशित होने वाली है।
कहते हैं नयन
बक्सर : यूं तो नयन सभी के कुछ न कुछ कहते हैं। पर कुमार नयन का कहना दिल को छू जाता है। 1974 में छात्र आंदोलन हुआ। पटना में गोली चली कई छात्र मारे गए। हमने भी यहां प्रदर्शन किया। पकड़े गए। हवालात में बंद किया। माफी मांगने वाले को छोड़ दिया जाता था। नहीं मांगने वाले को केत (कोड़े से पिटना जैसी सजा ) से पीटा जा रहा था। अथवा जेल भी मिल रही थी। खबर सून मेरे दादा सीताराम केशरी थाने पहुंचे। तब जिला शाहाबाद था। वे यहां के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने सबके सामने कहा। अपनी ही सरकार का विरोध व उग्र प्रदर्शन जायज नहीं। साथ ही मेरे पास आकर कान में कहा। तुमको यह लगता हो कि कुछ गलत नहीं किया। तो क्षमा नहीं मांगना। उस घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया। मुझे तब पता चला जीवन को सिद्धांतवादी लोग किस तरह जीते हैं। उस दिन के बाद से आज तक मैंने अपने लाभ के लिए किसी से समझौता नहीं किया।
जीवन परिचय
बक्सर : छह जनवरी 1955 को डुमरांव में कुमार नयन का जन्म हुआ। उनके पिता गोपाल जी केशरी थे। दादा जी सीताराम केशरी जिनको पूरा बिहार स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जानता था। नयन जी ने दसवीं तक की पढ़ाई हाई स्कूल डुमरांव से की। 1969 में इंटर पास किया। डीके कालेज से बीए, फिर एलएलबी व अंतत: हिन्दी से एमए किया। इस बीच 1975 में ही वे डुमरांव से बक्सर आ गए। यहां शहर में उनकी ननिहाल थी। यहीं बस गए। आज शहर ही दलित बस्ती खलासी मुहल्ला में इनका आशियाना है। अब उनकी नई चुनौती है। स्वच्छता, जिसके लिए लोगों को समझाते फिर रहे हैं। हालात ने कवि भी बना दिया। अक्सर जिले से बाहर कवि सम्मेलनों में भी आते- जाते रहते हैं। उनके जैसे दीर्घ जीवि पत्रकार कम ही मिलते हैं।

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