जरुरत सताती रहीं, कलम बुलाती रही : अरुण विक्रांत

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बक्सर खबर : पत्रकारिता की आभा में बहुत लोग जीते हैं। लेकिन इसके साथ कदम-ताल मिलाकर चलने वाले पत्रकारों की दशा तो बहुत विकट है। ग्रामीण स्तर पर कार्य करने वाला कोई संवाददाता कंपनी के पूर्णकालिक कर्मी नहीं बन पाते। ऐसी स्थिति में उसकी जरुरतें हमेशा दस्तक देती रहती हैं। आर्थिक तंगी का दर्द झेलने वाला पत्रकार कलम के कारण मिलने वाले सम्मान से अपने आप को अलग नहीं कर पाता। घर वालों के ताने और फटी जेब को सीने से लगाए पत्रकार बने रहने की हिम्मत जुटाए रखता है। कुछ ऐसी ही दुविधा के बीच पले बढ़े अरुण कुमार विक्रांत डुमरांव के मजे हुए पत्रकार हैं। पिछले तेइस वर्ष की पत्रकारिता ने उन्होंने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने साप्ताहिक कालम इनसे मिलिए के लिए हमने उनसे बात की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश :

पसंद आया कलम-कागज का साथ
बक्सर : पत्रकारिता हमेशा से समाज के हर हिस्से के केन्द्र में रही है। इस वजह से पत्रकारों पर भी पूरे समाज की नजर रहती है। मैं भी इसी आकर्षण के कारण मीडिया से जुड़ गया। वह दौर था जब हम सभी डाक से समाचार अपने दफ्तर को भेजते थे। समय बदला फैक्स का दौर आया। तब स्थानीय पत्रकारों को खबर भेजना बहुत ही खर्चिला हो गया। लेकिन स्थानीय पत्रकारिता के अपने कुछ लाभ भी हैं। डुमरांव राज परिवार ने पत्रकारों के लिए फैक्स की सुविधा प्रदान की। काम आसान हुआ और एक अभियान चला। डुमरांव का होने के कारण हर उस समस्या के लिए हमने संघर्ष किया। जो हाल में अनुमंडल बने डुमरांव के विकास लिए सहायक हो।

यज्ञ का पोस्टर

पत्रकारिता जीवन
बक्सर : विक्रांत बताते हैं। पत्रकारिता का जीवन वर्ष 1994 में हुआ। हिन्दुस्तान अखबार ने अंशकालिक संवाददाता की नियुक्ति की। संपादक ने हमारा चयन किया। वहां से अनुमति मिलते ही डुमरांव से पत्रकारिता शुरु की। इससे पहले संध्या प्रहरी पटना के लिए काम रह रहा था। यह दौरा 2004 तक चला। इस बीच कंपनी ने अपने सभी पुराने संवाददाता को छाटना प्रारंभ किया। हम भी उसी के शिकार हुए। इसी बीच 2005 दैनिक जागरण डुमरांव से जुड़ गया। कलम फिर बोली पड़ी। जागरण में भी 12 वर्षो का समय गुजर चुका है। विक्रांत बताते हैं। इस दौरान आकाशवाणी के लिए मैं जिले की चिढ्ठी लिखता था। उस जमाने में दो सौ रुपये मिलते थे।
व्यक्तिगत जीवन
बक्सर : अरुण विक्रांता अपने तीन भाइयों में सबसे बड़े हैं। इनका जन्म 1 जनवरी 1966 को हुआ। डुमरांव निवासी श्री रमेश प्रसाद इनके पिता हैं। जो राज अस्पताल में लैब आपरेटर थे। परिवार की आमदनी कम होने के कारण स्नातक की पढ़ाई करने के उपरांत शिक्षा छोडऩी पड़ी। नौकरी की तलाश में निकले तो ऐसी जगह पहुंचे। जहां से अखबार बटता था। आरा के मशहूर एजेंट रामध्यान सिंह के यहां मुंशी की नौकरी की। 87 से 92 का यह सफर उनके लिए संघर्ष का रहा। वापस लौटे तो पत्रकार बन गए। यहां प्रदीप जायसवाल, चाचा मुरली प्रसाद, राजनीतिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद केशरी ने उन्हें भरपुर सहयोग किया। इस बीच एक ऐसा वक्त आया जब टैक्टस टाइल्स मिल में जन संपर्क पदाधिकारी की छह वर्ष तक की नौकरी की। आज उनकी पत्नी किरण आंगनबाड़ी सेविका हैं। दो बेटियां और एक बेटा है। विक्रांत कहते हैं। परिवार भरा पूरा है, हाथ में कलम है। हमे इस जीवन से कोई मलाल नहीं है।

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