-इस माह की 18 तारीख को मनाया जाना है यह त्योहार
बक्सर खबर। शिवरात्रि का अर्थ वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है। ईशानसंहिता में बताया गया हैं कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को आदिदेव भगवान श्री शिव करोड़ों सूर्यो के समान प्रभावाले लिङ्ग रुप में प्रकट हुए।
फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिङ्गतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:।।
शिवरात्रि व्रत की वैज्ञानिकता तथा आध्यात्मिकता–
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत:वही समय जीवन रुपी चन्द्रमा का शिवरुपी सूर्य के साथ योग–मिलन होता है। अत:इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्टतम फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का रहस्य है। यह महापर्व शिव के दिव्य अवतरण का मङ्गलसूचक है। उनके निराकार से साकार रुप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। वे हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारों से मुक्त करके परम सुख,शान्ति, ऐश्वर्यादि प्रदान करते है।
चार प्रहर का पूजा विधान
चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है। इसमें शिवजी को पञ्चामृत से स्नान कराकर चन्दन, पुष्प,अक्षत,से पूजा,रुद्राभिषेक,रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्री पाठ ,वस्त्रादि से श्रृंङ्गार कर आरती करनी चाहिए। रात्रि जागरण पञ्चाक्षर मंत्र का जप करना चाहिए।
प्रथम आख्यान
पद्मकल्प के प्रारम्भ में भगवान ब्रह्मा जब अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज एवं देवताओं आदि की सृष्टि कर चुके थे। एक दिन स्वेच्छा से घुमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। उन्होंने देखा भगवान नारायण शुभ्र, श्वेत सहस्रफणमौलि शेष की शय्या पर शांत अधलेटे हुए हैं। भूदेवी, श्रीदेवी श्रीमहालक्ष्मीजी शेषशायी के चरणों को अपने अङ्ग में लिये चरण सेवा कर रही है। गरुण, नन्द, सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि विनम्रतया हाथ जोड़े खड़े हैं। यह देख ब्रह्माजी को अति आश्चर्य हुआ। ब्रह्माजी को गर्व हो गया था कि मैं एकमात् सृष्टि का मूल कारण हूँ और मैं ही सबका स्वामी, नियन्ता तथा पितामह हूँ। फिर यह वैभवमण्डित कौन यहां निश्चिन्त सोया है।
श्रीनारायण को अविचल शयन करते हुए देखकर उन्हें क्रोध आ गया। ब्रह्माजी ने समीप जाकर कहा–तुम कौन हो? उठो! देखो, मैं तुम्हारा स्वामी, पिता आया हूं। शेषशायी मन्द मुसकान से बोले–वत्स! तुम्हारा मङ्गल हो। आओ, इस आसन पर बैठो। ब्रह्माजी को और अधिक क्रोध हो आया, झल्लाकर बोले–मैं तुम्हारा रक्षक, जगत् का पितामह हूँ। तुमको मेरा सम्मान करना चाहिये। इस पर भगवान नारायण ने कहा–जगत मुझमें स्थित है, फिर तुम उसे अपना क्यों कहते हो? तुम मेरे नाभिकमल से पैदा हुए हो,अत:मेरे पुत्र हो। मैं स्रष्टा, मैं स्वामी–यह विवाद दोनों में होने लगा। ब्रह्माजी ने ‘पाशुपत’ और श्रीविष्णु जी ने ‘माहेश्वर’अस्त्र उठा लिया। दिशाएं अस्त्रों के तेज से जलने लगीं, सृष्टि में प्रलय की आशंका हो गयी थी। देवगण भागते हुए कैलाश पर्वत पर भगवान् शिव के पास पहुंचे। अन्तर्यामी शिवजी सब समझ गये। देवताओं द्वारा स्तुति करने पर बोले–मैं ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को जानता हूं। मैं उन्हें शांत करुंगा। ऐसा कहकर भगवान शिव सहसा दोनों के मध्य में अनादि, अन्त-ज्योतिर्मय स्तम्भ के रुप में प्रकट हुए।
शिवलिङ्गतयोद्भूत: कोटिसूर्य समप्रभ:।।
माहेश्वर,पाशुपत दोनों अस्त्र शान्त होकर उसी ज्योतिर्लिंङ्ग में लीन हो गये।
यह लिङ्ग निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्म का प्रतीक है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजी ने उस लिङ्ग की पूजा अर्चना की। यह लिङ्ग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ तभी से आजतक लिङ्ग पूजा निरन्तर चली आ रही है। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्माजी ने कहा–महाराज। जब हम दोनों लिङ्ग के आदि अन्त का पता लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इसपर कृपालु भगवान् शिव द्वादश ज्योतिर्लिंङ्ग में विभक्त हो गये। महाशिवरात्रि का यही रहस्य है(ईशानसंहिता)। दूसरा आख्यान भी मिलता है। जिसमें चारों पहर के पूजा अर्चन रहस्य वर्णन है।
महाशिवरात्रि व्रत का रहस्य
नारद संहिता के अनुसार जिसदिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि आधी रात के योग वाली हो उस दिन जो शिवरात्रि व्रत करता है, वह अनन्त फल को प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में तीन पक्ष हैं–1-चतुर्दशी को प्रदोष व्यापिनी, 2-निशीथ(अर्धरात्रि) व्यापिनी एवं3-उभयव्यापिनी। व्रतराज,निर्णयसिन्धु तथा धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों के अनुसार निशीथव्यापिनी होना ही मुख्य है,परन्तु इसके अभाव में प्रदोष व्यापिनी के ग्राह्य होने से यह पक्ष गौण है। इस कारण पूर्वा या परा दोनों में जोभी निशीथ व्यापिनी चतुर्दशी तिथि हो, उसी में व्रत करना चाहिये।
चतुर्दशी के स्वामी शिव
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रतिपदा आदि सोलह तिथियों के अग्नि आदि देवता स्वामी होते है। चतुर्दशी के स्वामी शिव है।इस तिथि की रात्रि में व्रत करने के कारण इस व्रत का नाम शिवरात्रि है। परन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अर्धरात्रि में ‘शिवलिङ्गतयोद्भूत: कोटिसूर्य समप्रभ:’–ईशानसंहिता के इस बचपन के अनुसार ज्योतिर्लिंङ्ग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाशिवरात्रि के नाम से विख्यात हुआ।
व्रत का महत्त्व
शिवपुराण की कोटिरुद्र संहिता में बताया गया हैं कि शिवरात्रि व्रत करने से भोग और मोक्ष दोनो ही प्राप्त होते है। ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वती जी के पूछने पर भगवान् शिव ने बताया शिवरात्रि व्रत करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है। मोक्षार्थी को मोक्ष प्राप्ति कराने वाले चार व्रतों का पालन करना चाहिये। ये चार व्रत हैं–1-भगवान शिव की पूजा ,2-रुद्र मंत्रों का जप,3-शिवमंदिर में उपवास, 4-काशी में देहत्याग।
रात्रि ही क्यों?
जिज्ञासा का समाधान विद्वानों ने किया है। भगवान् शंकर संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता है। तमोमयी रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है। उसका आगमन होते ही प्रकाश का संहार,जीवों किए दैनिक कर्मचैष्टाओं का संहार और अंत मे निद्रा द्वारा चेतना का संहार होकर संपूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हृदयङ्गम हो जाता है। श्रवण नक्षत्र भी शिव को प्रिय है। इस वर्ष दिनांक-18/02/2023 को प्रदोष और महाशिवरात्रि दोनों एक ही दिन है साथ ही श्रवण नक्षत्र भी है। अत:इस वर्ष की शिवरात्रि का विशेष महत्तव है।( आलेख पंडित नरोत्तम द्विवेदी के सौजन्य से )