बक्सर के बेटे ने रखी थी बिहार की नींव, क्या आप जानते हैं

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-प्रेम प्रकाश
बिहार दिवस पर विशेष
हम अपने जिस बिहार पर इतराते हैं, इठलाते हैं,उसकी नींव अपने इसी बक्सर के एक लाल ने रखी थी। हैरान हो गए न! मगर, सच यही है। यही लाल आजादी के बाद संविधान सभा का प्रथम अध्यक्ष बना। जी हां, हम बात कर रहे हैं सच्चिदानंद सिन्हा की।10 नवंबर 1871 को बक्सर जिले के चौंगाईं प्रखण्ड के मुरार गांव में एक इज़्ज़तदार कायस्थ परिवार में जन्मे डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने पहली बार खुद को बिहारी और अपना प्रांत बिहार बताया था। तब देश के नक्शे पर बिहार कहीं नहीं था।

यह बात फरवरी, 1893 की है। बिहार अलग प्रांत न होकर बंगाल का हिस्सा हुआ करता था। तो, किस्सा यह है कि जब सचिदानंद सिन्हा जब इंगलैंड से कानून की पढ़ाई कर लौट रहे थे तो साथ के एक पंजाबी वकील ने उनसे पूछा कि किस प्रांत से हो? सिन्हा साहब का जवाब जैसे तैयार था। बिना देर किए बोले – बिहार प्रांत से। जवाब सुनकर वकील का दिमाग घूम गया। उसने कहा, इस नाम का तो कोई प्रांत नहीं है हिंदुस्तान में। जानते हैं तब सिन्हा साहब ने क्या जवाब दिया? उन्होंने कहा, अभी नहीं है ठीक बात, लेकिन जल्द हो जाएगा। यह जवाब तय कर देता है कि बक्सर के इस लाल के दिमाग में बिहार को लेकर पूरा खाका तैयार हो चुका था। देर थी तो बस अवसर की ताकि उसे मूर्त रूप दिया जा सके। और इतिहास का चक्र हर किसी को अवसर मुहैया कराता है। चाहे वह कोई व्यक्ति हो, या राष्ट्र। यह अवसर मिला 1905 ई. में बंगाल विभाजन की घोषणा से। जिसे इतिहासकारों ने बंग-भंग का नाम दिया है। वस्तुत: अंग्रेज इसके माध्यम से हिन्दू-मुसलमानों में वैमनस्यता पैदा करना चाहते थे। हालांकि इसका जबरदस्त विरोध हुआ और स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार होने लगी। इसी बीच पाश्चात्य जगत से यात्रा कर लौटे बिहार के कई लोगों ने अपनी सोच के अनुसार बिहार प्रांत को स्वरूप प्रदान करने का अभियान शुरू कर दिया। इनमें डाक्टर गणेश प्रसाद और सच्चिदानन्द सिन्हा प्रमुख थे। इन्हें लगता था पश्चिमी तौर तरीकों से ही बिहार का विकास किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक था कि बिहार एक अलग प्रांत बने। इस सोच को धरातल पर उतारने के लिए महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा के संपादकत्व में बिहार-टाइम्स नामक पत्रिका निकाली गई।

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इतना ही नहीं वत्र्तमान बिहार-उड़ीसा और झारखण्ड राज्यों के सम्मिलित स्वरूप को बिहार प्रांत मानते हुए 1894 ई. में बंगाल अधीनस्थ बिहार के उप राच्यपाल सर चार्ल्स इलियट को प्रथम ज्ञापन सौंपा गया। लेकिन इसे तत्काल अमान्य कर दिया गया था। भले ही अंग्रेजों ने इस प्रयास को नजरअंदाज किया, पर इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रही स्वतंत्रता की छटपटाहट से वे अनभिज्ञ नहीं थे और ब्रिटिश हुकूमत ने धार्मिक बंटवारा की रूप-रेखा तैयार कर 1905 ई. में बंग-भंग कर भारत में रह रहे हिन्दू-मुसलमानों को अलग-अलग करने का प्रयास प्रारंभ किया। दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन और बिहार प्रांत की मांग धीरे-धीरे आम जनमानस में बढ़ती जा रही थी, क्योंकि बंग-भंग के विरोध के साथ बिहार में राजनैतिक परिवर्तन होने लगे। पुन: इस कार्य में लगे महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा ने 1906 ई. में अलग बिहार राज्य के लिए एक पुस्तिका निकाली। इसके साथ-साथ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर मजहरूल हक, अली इमाम और हसन इमाम आगे आये। इन लोगों ने पहली बार बिहार प्रदेश सम्मेलन का आयोजन पटना में किया। 1908 ई. में सम्पन्न हुए इस सम्मेलन की अध्यक्षता नवाब सरफराज हुसैन खां ने की थी, जिसमें हसन इमाम को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद बिहार प्रांत की मांग जोर पकड़ती गई। 1906 ई. में प्रकाशित पुस्तक और 1908 ई. के सम्मेलन ने बिहार प्रांत की अवधारणा को जमीनी आधार प्रदान किया। इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के पटना में आयोजित 1912 ई. में 27वें सम्मेलन में बिहार को नई दिशा देने और सम्पूर्ण विकसित करने पर चर्चा हुई। सनद रहे इस सम्मेलन के अध्यक्ष आर.एन. मधेलकर महासचिव सच्चिदानन्द सिन्हा और स्वागताध्यक्ष मजहरूल हक बनाये गए थे। जहां तक बिहार प्रांत के बंगाल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व में आने का सवाल है, तो 12 दिसम्बर 1911 ई. को दिल्ली के शाही दरबार में सम्राट ने बिहार-उड़ीसा को अलग करने की घोषणा की थी, जिसका नोटिफिकेशन 22 मार्च 1912 को  स्पष्ट रूप से भूखंडों का निर्धारण कर 1 अप्रैल 1912 ई. को इसे लागू कर दिया गया।

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