बक्सर खबर: होली रंग का पर्व है, उमंग का पर्व है, हर्ष का पर्व है, उल्लास का पर्व है। यह मन का रंग तन पर चढ़ने का पर्व है। पर अफसोस, हम अपनी बाहरी दुनिया को जितनी ही रंगीन बनाते जा रहे हैं, मन हमारा बेरंग होता जा रहा। यह सवाल हमारे और आपके मन को कचोट रहा है। न जाने क्यों? यह सवाल महज सवाल इसलिए नहीं रह जाता है क्योंकि इसको नहीं तो जीवन को भी क्या समझ पाएंगे।
होली बसंत के आगमन के साथ ही शताब्दियों से मनुष्य के मन मिजाज पर दस्तक देने लगी होगी। बात अगर इसके इतिहास की करें तो आर्यों के आगमन के साथ इसका इतिहास मिलता है।संस्कृत साहित्य से लेकर वेद और पुराणों तक में इसका जिक्र मिलता है। यही नहीं हमारे इतिहास के मुस्लिम काल में भी इसका रंग चटख मिलता है। मतलब यह वह पर्व रहा है अपनी शुरूआत से ही, जिसमें हर रंग अपने अलग रंग का अस्तित्व बनाए रखने के साथ ही दूसरे रंगों के साथ मिलकर इन्द्रधनुषी छटा भी बिखेरते हैं। आज समाज इस छटा को बनाए रखने की चुनौतियों से इसलिए जूझ रहा क्योंकि हमारा मन रंगहीन होता जा रहा। हम अपनी बाहरी छटा को रंगीन करने के चक्कर में इतने उलझ गए हैं कि दूसरे रंग के अस्तित्व को दरकिनार कर दे रहे हैं। यह होड़ बन्द होनी चाहिए। इसकी शुरुआत हम सभी को करनी होगी।
हमें सिख लेनी होगी अपनी प्रकृति से जो इस होली का आधार रही है।
जिस तरह बसंत के आगमन के साथ पेड़ पौधे फूलों से भर जाते हैं, शरद को विदा देने और बसन्त का स्वागत करने लिए मौसम अंगड़ाई लेने लगता है, पशु, पंछी और मनुष्य तक में एक किस्म के तरंग का संचार होने लगता है। ये सारे रंग होली में एक साथ दिखते हैं। हमें इन्हीं रंगों को बचाना है, जो खोते से जा रहे। इसके लिए होलिका की तरह हमें खुद की परीक्षा लेनी चाहिए। क्योंकि असली होली तभी मनेगी जब भीतरी रंग बाहर छलकेंगे।