स्थान: बंगाली टोला, बक्सर। समय: एक सर्दनुमा दोपहर। संवाददाता: मुस्ताक हुसैन, बंटी बक्सर खबर। प्रश्न : पवन जी, आपके घर में ऐसा लगता है जैसे साहित्य की महफिल रोज ही सजती हो। थकते नहीं हैं इतने आयोजन से? उत्तर: (हंसते हुए) थकने का समय नहीं है बाबू! जब आत्मा कविता सुन लेती है, तो शरीर को आराम की जरूरत नहीं रहती। और वैसे भी—“हमारा पार्वती निवास है, कोई साधारण मकान थोड़े है, यह तो साहित्य का ससुराल है!”
प्रश्न: आपने 70 से ज्यादा किताबें लिखीं, ये लेखन की शुरुआत कैसे हुई? उत्तर: जब पहली बार प्यार हुआ था, तो कविता लिख दी। लड़की नहीं मिली, कविता रह गई। फिर सोचा, जब भावनाएं कागज पर ही सुकून देती हैं, तो कागज से ही रिश्ता बना लेते हैं। बाकी किताबें तो धीरे-धीरे शब्दों की खेती बन गईं। और हम किसान के बेटे हैं, खेत-बगान समझते हैं।
प्रश्न: समाज में जो लोग अच्छा काम कर रहे होते हैं, आप उन्हें सम्मानित करते हैं। इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
उत्तर: सम्मान देने से हाथ झुकता है, और अहंकार टूटता है।गांव में एक बुजुर्ग ने कहा था—“जिसे तुम झुक कर सम्मान दोगे, वो हमेशा तुम्हें दिल से याद करेगा।” बस उसी दिन से मैंने तय किया—जिसके भीतर सच्ची रोशनी है, उसे माला जरूर पहनानी है।

प्रश्न: आप हमेशा सफेद कपड़ों में क्यों दिखते हैं?
उत्तर: सफेद पहनने से मन भी साफ रहता है, और लोग समझते हैं कि हम बहुत शरीफ हैं। (थोड़ी देर रुककर) वैसे असली कारण ये है कि रंग-बिरंगे कपड़ों का चुनाव मेरी अर्धांगिनी करती थी, और मैंने शादी के बाद से चुनाव करना बंद कर दिया।
प्रश्न: आपने पहलवानी भी की है, योग भी करते हैं, फिर साहित्य की ओर कैसे मुड़े?
उत्तर: साहित्य भी एक कुश्ती है—अंतरात्मा और समाज के बीच। बस फर्क इतना है कि इसमें दांव-पेंच शब्दों से खेले जाते हैं। और योग… वो तो जीवन का रीमोट कंट्रोल है, जब खराब हो, थोड़ा प्राणायाम करो… सब सेट!

प्रश्न: आपके सबसे प्रिय गुरु?
उत्तर: रामेश्वर वर्मा जी। जैसे तुलसीदास के पीछे शारदा थीं, वैसे ही हमारे विचारों के पीछे रामेश्वर वर्मा। वो मेरे लिए गुरु ही नहीं, आत्मा के दीपक हैं।
प्रश्न: क्या आज के युवा लेखन में वो गहराई नहीं ला पा रहे हैं?
उत्तर: युवा गहराई में जाना चाहते हैं, पर मोबाइल के नेटवर्क में ही अटके रहते हैं। गहराई चाहिए, तो थोड़ा मन का डाटा रिचार्ज करना होगा—शांत बैठो, सोचो, फिर लिखो। वरना बस पोस्ट रह जाएगा, साहित्य नहीं।
प्रश्न: पवन जी, अब आपसे मिलने कौन-कौन आता है?
उत्तर: डॉक्टर आते हैं दवा देने, वकील आते हैं बहस करने, पत्रकार आते हैं बात करने, और कवि आते हैं भाव बहाने।बाकी जो आता है, वो खाली नहीं जाता—या कविता ले जाता है, या प्रेरणा।

प्रश्न: अंतिम सवाल—आपके लिए सफलता क्या है?
उत्तर: “जो तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारा जिक्र श्रद्धा से करे, वो सफलता है। बाकी पद, पैसा तो वक्त का सौदा है।”
संवाद का समापन उनके चिर-परिचित मुस्कान के साथ हुआ। चाय की चुस्की, हंसी की फुहार और एक अद्भुत संतुलन—यही थे पवननंदन जी। अब वे नहीं हैं, पर उनकी बातें, उनके शब्द, उनके आयोजन, उनका स्नेह—सब यहीं हैं। हमारे भीतर, हमारे समाज में।