‌‌‌ स्वार्थ की राजनीति ने बक्सर में किसी को नहीं बनने दिया बड़ा नेता

2
900

-अपनो को गच्चा देने में अव्वल रहे भाजपा के दगाबाज
बक्सर खबर (चुनावी चकल्लस)। चुनावी चर्चा चरम पर है। क्योंकि 18 वीं लोक सभा के लिए चुनावी रण सज गया है। आज बक्सर लोकसभा सीट के लिए नामांकन दाखिल करने का दूसरा दिन है। इस बार कुछ लोगों ने स्थानीय उम्मीदवार के मुद्दे को हवा दी है। इसमें प्रत्याशियों से ज्यादा यहां के लोगों का हाथ है। क्योंकि उम्मीदवार कोई भी हो, और किसी दल का हौं वह स्वयं अकेला है। उसके समर्थक अथवा पार्टी के लोग ही प्रचार प्रसार करते हैं। और ऐसे लोग हर चौक चौराहे पर बाहरी का मुद्दा उठा रहे हैं। यह मसला बाजार में चर्चा का केन्द्र बना हुआ है।

स्थानीय बात की बात कम हो रही है। बाहरी को ही प्रमुखता दी जा रही है। वैसे चर्चा जो भी हो। एक सवाल जरुर है। बक्सर में कोई मजबूत नेता क्यों नहीं उभर पाता? संभवत: इसकी मुख्य वजह स्वार्थ की राजनीति है। फिलहाल यह मुद्दा भाजपा के विपक्ष में प्रचारित किया जा रहा है। तो पहले उसकी दल की बात करते हैं। भाजपा जब से प्रभुत्व में आई है। यहां से पहला चुनाव लालमुनी चौबे लड़े थे। उन्हें सफलता नहीं मिली। उसके बाद भाजपा ने दो बार पूर्व सांसद व डुमरांव के महाराज कमल सिंह को उम्मीदवार बनाया। लेकिन, उन्हें सफलता नहीं मिली। जबकि वे स्थानीय व कद्दावर नेता थे।

उनकी असफलता के बाद भाजपा ने यहां से कैमूर के लालमुनी चौबे को प्रत्याशी बनाया। उन्हें चार बार जीत मिली। लेकिन, 2009 में राजद के जगदानंद बाजी मार गए। भाजपा ने 2014 में अश्विनी चौबे को उम्मीदवार बनाया। वे भी दो बार सांसद रहे। और मौजूदा चुनाव में फिर वहीं मुद्दा उठ रहा है। कोई स्थानीय क्यूं नहीं। लेकिन, सच है, भाजपा का कोई नेता पिछले पांच दशक में उस कद तक नहीं पहुंचा। जो सांसद का चुनाव लड़ सके। क्यूं कि स्थानीय नेता (राम नारायण राम) को छोड़कर कोई अन्य चुनाव जीत ही नहीं सका। अजय चौबे दो बार बक्सर सदर सीट से चुनाव लड़े और हार का सामना करना पड़ा। अपनों की खींचतान के कारण भाजपा ने यहां पटना की रहने वाली सुखदा पांडेय को उम्मीदवार बनाया। वह चुनाव जीत गई। एक बार नहीं दो बार। लेकिन, स्थानीय का मुद्दा फिर हावी हुआ। तीसरे चुनाव में पार्टी ने उनकी जगह प्रदीप दुबे को उम्मीदवार बनाया। लेकिन, वह भी भितरा घात के शिकार हुए।

फिर उनकी जगह परशुराम चतुर्वेदी को पार्टी ने मौका दिया। लेकिन, राजनीति की चक्रव्युह में उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। हालांकि भाजपा वोट पहले की अपेक्षा बढ़ा। लेकिन, कुछ अन्य स्थानीय नेताओं के कारण असफलता ही हाथ लगी। और फिलहाल भाजपा के स्थानीय नेता पैदल हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं। लेकिन, जो हैं वह आपके सामने हैं। हालांकि इस बीच कुछ अन्य लोग चुनाव जीते। लेकिन, उनके अंदर ऐसा दमखम नहीं रहा। जो वे जिले अथवा प्रदेश की आवाज बन सकें। नतीजा आज देश क्या बिहार के पटल पर कोई ऐसा नेता नहीं है। जो यहां की आवाज बन सके। अपवाद के लिए डुमरांव के हरिहर सिंह का नाम लिया जा सकता है। लेकिन, इससे सच बदलने वाला नहीं है। मौजूदा समय में डुमरांव की सीट से भी बाहरी ही प्रतिनिधि विराजमान है। चलते-चलते यह भी कह देना लाजमी है। यह मुद्दा भेद पैदा करने वाला है। देश का संविधान जब इस बात की अनुमति देता है, तो हमें इन बातों पर किसी की आलोचना करने का हक नहीं है।

2 COMMENTS

  1. बढ़िया गाये हैं! चीत भी उनकी,पट भी उनकी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here