बक्सर खबर। इस जब्बर ठंड में नश्तर चुभोती हवाएं लोगों को ठिठुरने पर मजबूर कर रही हैं। खुद को गर्म रखने के लिए लोग तमाम प्रकार के जतन कर रहे हैं। बावजूद इसके वे मौसमी बीमारियों की चपेट में आ ही जा रहे हैं। लेकिन हम यहां मौसमी बीमारियों की बात क्यों करें जब चिकित्सा शास्त्र के बारे में ढेला तक नहीं जानते। हम तो बात करेंगे उस बीमारी की जिसके रोगी हर मौसम में दिख जाते हैं। बात भी इसलिए करेंगे क्योंकि ऐसे रोगियों को लेकर गुरू गरम है! जी हां, यहां बात छपास रोग से ग्रसित उन दानवीरों की हो रही है, जो इन दिनों शहर की सड़कों की खाक छान रहे हैं। किसलिए ? भई गरीबों को ढूंढने के लिए और किस लिए। इसके बाद भी गरीब हाथ नहीं लग रहे। नहीं समझे?
भई अच्छे दिन का जमाना है। नए हुकाम ने और कुछ भले न किया हो लेकिन लोगों को खुद को ब्रांड की तरह पेश करने की अकल तो दे ही दिया है। ऐसे में दानवीर ठंड के इस मौसम में चंद रुपये खर्च कर कुछ कंबल खरीदते हैं, फिर कंबल को गरीबों को ओढ़ाते हैं और अपने इस कारनामे के चंद फोटो उतार मीडिया वालों को छपने के लिए दे देते हैं। हजार दो हजार खर्च कर दानवीर बनने का यह खेल आम लोगों को भले न समझ में आए लेकिन गुरू तो गुरू है। दानवीरों की इस करतूत ने ठंड के इस मौसम में गुरू के भीतर मौजूद आग को भड़का दिया है। इस आग का धुआं गुरू की नाक, कान और मुंह से भाप की शक्ल में निकल रहा है।
धधक रहे गुरू से मेरी मुलाकात सुबह सुबह चाय की एक दुकान पर हो गई। गुरू के हाथों ने अखबार के पन्ने थाम रखे थे और निगाहें पन्ने पर कंबल ओढ़कर तस्वीर खिंचाने वाले दानवीरों की खबर पर जमी थी। गुरू के माथे पर जो शिकन थी वह उन्हें पिछवाड़े में सिंग घुसेड़ देने को तैयार किसी भैसे जैसा बना रही थी। दुकान पर मौजूद लोगों से बेपरवाह गुरू बिना किसी को देखे बस गलियाए जा रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया तो पूछ लिया, इतने गरम क्यों हो गुरू? मेरा इतना पूछना था कि गुरू ने झटके से अखबार के पन्ने से नजरें हटाकर सीधा मुझ पर प्रहार किया-तुमसे मतलब? आपको गुस्से में देखा तो यूं ही पूछ लिया, जवाब में मैने कहा। कुछ क्षण तक गुरू ने अपनी नजरें मेरी आंखों में गड़ाए रखी फिर बोले, बताओ कंबल ओढ़ाना तो ठीक है, लेकिन मंशा कंबल ओढ़ाकर मीडिया और सोशल मीडिया में तस्वीर छपाने की हो, तो इसे दान नहीं स्वार्थ माना जाएगा कि नहीं?
ऐसे लोग रौब जमाते हैं कि देखो मैं गरीबों का मसीहा हूं, मददगार हूं। अरे, तुम मददगार कहां से हो गए, तुम तो चालबाज हो जो हजार दो हजार में दानवीर का टैग ले लेते हो। मददगार होते या सच में गरीबों के हितैषी होते तो मदद करते और किसी से कुछ नहीं कहते। एक सांस में ये बातें कहने के बाद गुरू मेरी ओर टकटकी लगाकर देखने लगे। मैं क्या जवाब देता, गुरू की बात गुरू ही जानें। मेरे मुंह से तो संगीत फिल्म के उस गीत- हो रब्बा कोई तो बताए प्यार होता है क्या की तर्ज पर हो रब्बा कोई तो बताए दान होता है क्या निकलने लगा।
गुरु गरम है :-यह हमारा नया साप्ताहिक कालम है। जिसे गुरुवार को जारी किया जाएगा। गुरु लंबे अंतराल के बाद अपने शहर में आए हैं। यहां की बदहाली देख वे काफी गरम हैं। उन्होंने मुझे भी खरी खोटी सुनाई। क्या लिखते हो, यहां समस्या है, वहां समस्या है। मैंने कहा आप ही लिखो गुरू हम पोस्ट कर दिया करेंगे।