तब प्रशासन से छनती नहीं ठनती थी – के के ओझा

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बक्सर खबर – आज आपके सामने हैं कौशलेन्द्र कुमार ओझा। इनकी कभी किसी से पटती नहीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि कलम से कभी समझौता नहीं करने वाले पत्रकार के रुप में जाने जाते थे। वह दौर था, पत्रकारों की तिकड़ी जिले में मशहूर थी। इसमें शामिल थे जयमंगल पांडेय, कुंदन ओझा और केके ओझा। कलम के धनी होने के कारण हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान और हिन्द्रुस्तान टाइम्स दोनों में लिखते थे। इन तीनों ने अपने जमाने में प्रशासन की नाक में दम कर रखा था। आए दिन डीएम से ठन जाया करती थी। अब वे सरकारी नौकरी में हैं। इसे संयोग ही कहेंगे। जिस न्यायालय की कार्यपद्धति पर हमेशा सवाल खडा करते थे। आज उसकी की नौकरी करते हैं। अपने साप्ताहिक कालम इनसे मिलिए के लिए जब इनसे बात हुई तो कई तथ्य सामने आए। प्रस्तुत है उन्हीं के शब्दों में जीवन वृत।

 केके ओझा भोजपुर ज़िले के सेमरिया के रहने वाले हैं। यहां शिवपुरी में इनका बसेरा था। पिता जी हरेकृष्ण ओझा के साथ बक्सर में आ बसे। बी बी हाई स्कूल से पढ़कर पत्रकारिता शुरू की। पहला लेख इंटर में पढाई करने के दौरान विज्ञान प्रगति में छपा। उत्साह बढा और लिखने की लत लग गई। वेद व्यास जी की तरह ऋचाएं तो नहीं लिख पाए , नारद अवश्य बन गए। उन्होंने बक्सर खबर से कहा-  हिंदुस्तान टाइम्स में बक्सर से लिखने की चिट्ठी मिली तो लगा क़ी वाक़ई पत्रकार बन गया। यह दिलचस्प है कि हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक के नाम पत्र लिखकर इतना छपा क़ि अख़बार के संपादक ने पत्र भेजकर पटना बुलाया और स्ट्रिंगर बना दिया। उस समय सांसद प्रो के के तिवारी थे तथा सूचना प्रसारण मंत्रालय के राज्य मंत्री भी। उनकी ख़बर भेजते तो पेज एक पर जगह मिल जाती तो कभी बाइलाइन भी।
इंटर से जो लिखने की लत लगी वो आज भी है। बक्सर जैसे क़स्बे में पत्रकारिता कई स्थानिकता का आग्रह उसपर केके तिवारी का सत्ता का उन्माद, जग नारायण त्रिवेदी जैसे नेताओं के बीच गणेश परिक्रमा की। ऐसी पत्रकारिता से जी उबा तो वाम दलों की ख़बरें भेजने लगा। अचानक भाकपा और माकपा का गढ़ हो गया बक्सर। इसी दौर में अभी प्रेस विज्ञप्ति संस्कृति विकसित हुई नहीं की ख़बर नहीं छपने का कोपभाजन बीजेपी के बबन उपाध्याय जी का भी बना। खबरों में कभी डीएम तो कभी एसपी का नाम भेजा तो कई साथी चिहुंक उठे।

इसी बीच बक्सर ज़िला बना। कई पत्रकार साथी आ गए। नयन जी नवभारत टाइम्स छोड़े तो कुंदन ओझा स्ट्रिंगर हो गए। मै राज कुमार की कृपा से टाइम्स ऑफ इंडिया का भी स्ट्रिंगर बना। जगदीशपुर से आज में लिखने वाले ओम प्रकाश गुप्ता पटना में मिले तो यू एन आई से भी जोड़ दिए। अरुण मोहन भारवि हिंदुस्तान छोड़े तो हिंदुस्तान का भी स्ट्रिंगर बन बैठा। बाद में राष्ट्रीय सहारा से भी जुड़ गया। साथी हो गए कुंदन ओझा और जय मंगल पांडेय। हो गई पत्रकारिता में ‘ब्राह्मणों’ की ज़मात। तब डुमराँव से शिवजी पाठक और शशांक। प्रदीप जायसवाल डुमराँव से नवभारत टाइम्स में लिखते थे। बक्सर में रामेश्वर प्रसाद वर्मा आज़ में लिखते रहे। यहीं वह दौर था जब पत्रकारिता अपने पुराने केंचुल छोड़कर नए तेवर में आ गई। मुखदेव राय अमृत वर्षा में लिखने लगे। डीएम और एसपी के खिलाफ़ खबरें छपने लगी। सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ़ खबरें जगह पाने लगी। साक्षरता पर डीएम एस के नेगी के खिलाफ़ ख़बर छपी तो कारण पृच्छा भी हुआ। शराब व्यवसायी की अपहरण की फिरौती की रकम छपी तो सारे लोग गुस्से में।

कुंदन ओझा को डीएम एलबी खियांग्ते ने बोला तो प्रेस कॉन्फ्रेंस का बहिष्कार भी करा दिया। गैस सिलेंडर कभी घर पर एसपी की गाड़ी से आया तो शशांक जैसे पत्रकार ने सत्ता के दुरूपयोग की शिकायत की। लेकिन सत्ता के गलियारों में ठहाका लगाकर भी उनकी गिलौरी कभी नहीं खाई। फिर राष्ट्रीय सहारा पटना से जुड़ा। किराए का मकान भी मिला तो स्थानीय विधायक मंजू प्रकाश का निजी आवास। पटना में सत्ता के गलियारों और मीडिया की नई मंडी दिखी । फिर सहारा में गुवाहाटी और अंत में एन डी टी वी पटना से जुड़ा। तभी बक्सर न्यायालय की नौकरी का पत्र प्राप्त हो गया। संयोग कि जब न्यायालय की नौकरी की सूचना मिली तो उस समय एन डी टी वी के राजदीप सरदेसाई के साथ राघोपुर दियारा घूम रहा था। दिल्ली पटना मुम्बई गुवाहाटी की पत्रकारिता से फिर आ टपका बक्सर।
बक्सर कचहरी में फिर पत्रकारिता का जुनून बिना सूचना जन संपर्क कार्यालय का प्रधान लिपिक रहते हुए कचहरी की ख़बरों को प्रमुखता से छपवाया। अब पेशकार, कभी कविता तो कभी लघु कथा, कहानी लिखा। कभी मुक्कमल आदमी नहीं बन पाया, जहाँ रहा विरोध के बीच ज़िया। बक्सर न छूट पाया और न बक्सर को मै छोड़ पाया। जैसे शहर को गंगा और ठोरा घेरे हुए हैं, वैसे मेरे भी दिमाग़ को कई बात घेरे हुए हैं और ज़िद रोज़ क़ि नया सवेरा हो। पर ज़ीवन की शाम गोधूलि भरी हुई हैं।

जीवन परिचय

बक्सर : साइंस से एमएससी करने वाले कौशलेन्द्र कुमार ओझा का जीवन हमेशा संघर्ष में गुजरा। कभी किसी की चाय नहीं पी। पर समझौता किसी से नहीं किया। जब पत्रकारिता छोड नौकरी में अाए थे। तब उनकी सैलरी सरकारी नौकरी से दुगनी थी। लेकिन, पिता की इच्छा के आगे उनकी एक न चली। ( समय अभाव में कुछ शेष)

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